ये रह-ए-इश्क़ है इस राह पे गर जाएगा तू एक दीवार खड़ी होगी जिधर जाएगा तू शोर-ए-दुनिया को तो सुन रंग-ए-रह-ए-यार तो देख हम जहाँ ख़ाक उड़ाते हैं उधर जाएगा तू दर-ब-दर है तो कहीं जी नहीं लगता होगा वो भी दिन आएगा थक-हार के घर जाएगा तू आज़िम-ए-हिज्र-ए-मुसलसल हुआ इस मिट्टी से लौट आएगा यहीं और किधर जाएगा तू जान जाएगा कि मंज़िल नहीं मौजूद कहीं ख़ुश-गुमाँ है अभी सरगर्म-ए-सफ़र जाएगा तू आरज़ू रख उसे पाने की कोई रोज़ अभी फिर यहीं बाम-ए-तमन्ना से उतर जाएगा तू ये जो तूफ़ान तिरे गिर्द है दीवानगी का इक ज़रा तेज़ हुआ और बिखर जाएगा तू कारवाँ रद हुआ और चुप हुई आवाज़-ए-जरस क्या अब उस सम्त को ता-हद्द-ए-नज़र जाएगा तू अब कहाँ ख़्वाब-ए-मोहब्बत कि वो शब दूर नहीं जब कहीं ख़ाक-भरी नींद से भर जाएगा तू