ये रंग तिरे शहर के सहरा में कहाँ हैं गलियाँ हैं न कूचे हैं मकीं हैं न मकाँ हैं आँखों में छुपा रक्खे हैं अश्कों के ख़ज़ीने हम ग़म की इनायात से महरूम कहाँ हैं झलकेंगे किसी रोज़ यही लफ़्ज़-ओ-बयाँ में आईना-ए-एहसास में जो अक्स निहाँ हैं रखते हैं जो मुख़्तारी-ए-इंसाँ की तमन्ना मजबूरी-ए-इंसाँ पे अभी अश्क-फ़िशाँ हैं आँखों में कोई मौज-ए-शफ़क़-रंग नहीं क्यों दिल में तो अभी ख़ून के दरिया से रवाँ हैं तख़्लीक़-ए-मुसव्विर को ज़रा ग़ौर से देखो रंगों के तनासुब में कई रंग निहाँ हैं क्या काम हमें माल-ओ-ज़र-ओ-सीम से 'शाहिद' हम अहल-ए-सुख़न अहल-ए-क़लम अहल-ए-ज़बाँ हैं