ये सहरा-ए-तलब या बेशा-ए-आशुफ़्ता-हाली है कोई दरयूज़ा-गर अपना कोई तेरा सवाली है हवादिस से नबर्द-आराईयों का किस को यारा था जुनूँ अपना सलामत जिस ने हर उफ़्ताद टाली है तिरे अग़माज़ की ख़ू सीख ली अहल-ए-मुरव्वत ने कि महफ़िल दर्द की अब साहब-ए-महफ़िल से ख़ाली है हुज़ूरी हो कि महजूरी मोहब्बत कम नहीं उस से तब अपना बख़्त-ए-आ'ली था अब अपना ज़र्फ़-ए-आ'ली है नुमू का जोश कुछ नज़्ज़ारा-फ़रमा हो तो हो वर्ना बहार अब के बरस ख़ुद पाइमाल-ए-ख़ुश्क-साली है किसी के लुत्फ़-ए-कम को देर लगती है सिवा होते चटकने तक तो हर गुल की जिबिल्लत इंफ़िआ'ली है शरफ़ इतना कि 'ग़ालिब' की ज़मीं में है ग़ज़ल 'गौहर' वो मज़मूँ-आफ़रीनी है न वो नाज़ुक-ख़याली है