ये शब-ए-फ़ुर्क़त में रंग-ए-गर्दिश-ए-अय्याम था सुब्ह का तारा जिसे समझा चराग़-ए-शाम था हम सुना करते थे अक्सर गर्मी-ए-महशर का नाम अब जो देखा इक सितमगर आफ़्ताब-ए-बाम था इम्तियाज़-ए-इश्क़ था फिर कैसे ला सकता था ताब हश्र बस इस पर बपा था उस का जल्वा आम था इश्क़ पर लाज़िम था ख़ुद फ़रहाद का सर तोड़ना पुख़्तगी का उस को दावा उस को सौदा ख़ाम था आप तो मुख़्तार थे जो दिल ने चाहा वो किया और फिर उल्टा मुझी पर हश्र में इल्ज़ाम था मस्त साक़ी की नज़र की जुम्बिशों को क्या कहूँ या'नी बे-पर्दा जवाब-ए-गर्दिश-ए-अय्याम था मैं नशेमन में रहा सय्याद का यूँ भी असीर दिल में था मेरे क़फ़स आँखों में मेरी दाम था नामा-बर को जान दे दी इज़्तिराब-ए-शौक़ में बस यही नामा मिरा था बस यही पैग़ाम था इम्तिहान-ए-इश्क़ उस ने क्यों लिया ऐ अहल-ए-इश्क़ पुख़्ता-कारों की तरफ़ से क्या ख़याल-ए-ख़ाम था मुझ को जब से होश है लाखों तरह के ग़म में हूँ होश में जब तक न था मुझ को बहुत आराम था क्या 'वफ़ा' की सरगुज़िश्त-ए-ग़म कहूँ यादश-ब-ख़ैर मर रहा था और लब पर आप ही का नाम था