सुनो तुम ग़ौर से थोड़ी सी है ये दास्ताँ मेरी नहीं चलती बयान-ए-शौक़ पर हरगिज़ ज़बाँ मेरी तबस्सुम और फिर बर्क़-ए-तबस्सुम उफ़ मआ'ज़-अल्लाह छुपी है ज़िंदगी भर की इसी में दास्ताँ मेरी पयाम-ए-शौक़ दे कर वो बुलाएँगे मुझे ऐ दिल ख़याल-ए-ख़ाम तेरा है ये क़िस्मत है कहाँ मेरी किसी की चश्म-ए-मयगूँ में सुरूर-ए-हुस्न रक़्साँ है हया ख़ामोश फ़ितरत है तमन्ना है जवाँ मेरी फ़ना के भेस में पिन्हाँ तिरा अंजाम-ए-हस्ती है यही कहती रही मुझ से 'वफ़ा' उम्र-ए-रवाँ मेरी