ये शहर अपनी इसी हाव-हू से ज़िंदा है तुम्हारी और मिरी गुफ़्तुगू से ज़िंदा है कुछ इस क़दर भी बुराई नहीं है मज़हब में जहान कलमा-ए-ला-तक़नतू से ज़िंदा है हम अपनी नफ़्स-कुशी की तरफ़ नहीं माइल कि अपना जिस्म तो बस आरज़ू से ज़िंदा है अब उस के बअ'द बताएँ तो क्या बताएँ हम तमाम क़िस्सा-ए-मन है कि तू से ज़िंदा है हम इस के बअ'द भी सरगर्म-ए-ज़िंदगी हैं कि दिल बस एक क़तरा-ए-ताज़ा-लहू से ज़िंदा है