यूँ भी तो तिरी राह की दीवार नहीं हैं हम हुस्न-ए-तलब इश्क़ के बीमार नहीं हैं या तुझ को नहीं क़द्र हम-आशुफ़्ता-सरों की या हम ही मोहब्बत के सज़ा-वार नहीं हैं क्या हासिल-ए-कार-ए-ग़म-ए-उल्फ़त है कि मजनूँ अब दश्त-नवर्दी को भी तय्यार नहीं हैं अक्सर मिरे शेरों की सना करते रहे हैं वो लोग जो ग़ालिब के तरफ़-दार नहीं हैं अब तुझ को सलाम ऐ ग़म-ए-जानाँ कि जहाँ में क्या हम से दीवानों के ख़रीदार नहीं हैं फिर तुझ से जुदा हो के कहीं ख़ुद से बिछड़ जाएँ हम लोग कुछ ऐसे भी दिल-आज़ार नहीं हैं