ये शहर सेहर-ज़दा है सदा किसी की नहीं यहाँ ख़ुद अपने लिए भी दुआ किसी की नहीं ख़िज़ाँ में चाक-गरेबाँ था मैं बहार में तू मगर ये फ़स्ल-ए-सितम-आश्ना किसी की नहीं सब अपने अपने फ़साने सुनाते जाते हैं निगाह-ए-यार मगर हम-नवा किसी की नहीं मैं आज ज़द पे अगर हूँ तो ख़ुश-गुमान न हो चराग़ सब के बुझेंगे हवा किसी की नहीं 'फ़राज़' अपनी जिगर-कावियों पे नाज़ न कर कि ये मता-ए-हुनर भी सदा किसी की नहीं