क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है जिस में कि एक बैज़ा-ए-मोर आसमान है है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से परतव से आफ़्ताब के ज़र्रे में जान है हालाँकि है ये सीली-ए-ख़ारा से लाला रंग ग़ाफ़िल को मेरे शीशे पे मय का गुमान है की उस ने गर्म सीना-ए-अहल-ए-हवस में जा आवे न क्यूँ पसंद कि ठंडा मकान है क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में फ़रमाँ-रवा-ए-किश्वर-ए-हिन्दुस्तान है हस्ती का ए'तिबार भी ग़म ने मिटा दिया किस से कहूँ कि दाग़ जिगर का निशान है है बारे ए'तिमाद-ए-वफ़ा-दारी इस क़दर 'ग़ालिब' हम इस में ख़ुश हैं कि ना-मेहरबान है देहली के रहने वालो 'असद' को सताओ मत बे-चारा चंद रोज़ का याँ मेहमान है