ये सीना इश्क़ से महरूम-ए-दर्द-ओ-दाग़ नहीं हज़ार शुक्र कि ये मुल्क बे-चराग़ नहीं मत इख़्तिलात कर ऐ नौ-बहार अब हम से चमन के होने का इस ख़ाक को दिमाग़ नहीं ये बुलबुलों का सबा मशहद-ए-मुक़द्दस है क़दम सँभाल के रखियो तिरा ये बाग़ नहीं ख़ुदा करे कि ये रौशन रहे क़यामत तक चराग़-ए-गोर है मस्तों का ये अयाग़ नहीं गली में यार की दिल भूल जा पड़ा था 'यक़ीं' फिर उन दिनों से दीवाने का कुछ सुराग़ नहीं