ये सोचता हूँ कि ख़ुद आरिफ़-ए-हयात भी है बशर जो महरम-ए-असरार-ए-काएनात भी है नफ़स नफ़स में रहे क्यों न इक जहान-ए-सिफ़ात मिरी निगाह में तनवीर-ए-हुस्न-ए-ज़ात भी है दिलों को मिल नहीं सकती थी इशरत-ए-अबदी हज़ार शुक्र मोहब्बत में ग़म की रात भी है वो इक ख़याल कि जिस ने ग़म-ए-हयात दिया वही ख़याल इलाज-ए-ग़म-ए-हयात भी है जो सिर्र-ए-इश्क़ भी है राज़-ए-हुस्न-ए-जानाँ भी यक़ीं करो मिरे दिल में इक ऐसी बात भी है ये हर गुनह पे जो एहसास है नदामत का मुझे तो 'कैफ़' यही हीला-ए-नजात भी है