ये उम्र मुसीबत की बसर हो के रहेगी जब शाम हुई है तो सहर हो के रहेगी अफ़्सुर्दगी-दिल गुल-ए-तर हो के रहेगी आह-ए-सहरी बाद-ए-सहर हो के रहेगी ख़ुद उन के तग़ाफ़ुल की इनायत से किसी दिन उन को मिरी हालत की ख़बर हो के रहेगी वो बर्क़-ए-तजल्ली जो अभी का'बा-ए-दिल है इक रोज़ वो मस्जूद-ए-नज़र हो के रहेगी या क़ाबिल-ए-सज्दा ही रहेगा न दर-ए-हुस्न या मेरी जबीं क़ाबिल-दर हो के रहेगी सैराब नज़र होगी मिरी या गुल-ए-तर से या ख़त्म बहार-गुल-तर हो के रहेगी अब उन की जफ़ाएँ नज़र-अंदाज़ न होंगी अब मेरी वफ़ा मद्द-ए-नज़र हो के रहेगी जो ग़फ़लत-ए-आज़ादी-ए-गुलशन में कटेगी उस रात की ज़िंदाँ में सहर हो के रहेगी