ये उम्र-ए-हिज्र अगर सर्फ़-ए-इंतिज़ार न हो तो वाक़ई मुझे हस्ती पे ए'तिबार न हो मुझे नहीं है अगर इन पे इख़्तियार न हो उन्हें भी ये दिल-ए-बेताब साज़गार न हो वहाँ वो ख़ुश कि मुझे उन से कुछ गिला ही नहीं यहाँ ये पास कहीं राज़ आश्कार न हो रहा-सहा भी दिल-ए-ज़ार का क़रार गया वो बार-बार ये कहते हैं बे-क़रार न हो हर एक दामन-ए-गुल पर फ़लक के आँसू हैं ख़िज़ाँ की मौत से यूँ ज़ीनत-ए-बहार न हो जफ़ा हुई न वफ़ा अब वो सीखते हैं हया ख़ुदा करे ये इरादा भी उस्तुवार न हो न गाएँ इश्क़ के नग़्मे जो बुलबुलें 'तालिब' चमन में गुल न खिलें मौसम-ए-बहार न हो