ये उरूज-ए-हस्ती है या ज़वाल-ए-हस्ती है उन की आरज़ू महँगी अपनी मौत सस्ती है खुल चुके हैं रिंदों पर राज़-हा-ए-मय-ख़ाना ख़ुद निगाह-ए-साक़ी से तिश्नगी बरसती है दूर तक नहीं कोई साथ दश्त-ए-ग़ुर्बत में रास्तों की वीरानी और दिल को डसती है कुछ तो ऐ ग़म-ए-जानाँ तुझ को भूलना होगा सिर्फ़ तेरा हो रहना इक बुलंद पस्ती है इक तुझी को चाहा था क्या ख़ुदाई चाही थी फिर भी कम-नज़र दुनिया जुर्म-ए-दिल पे हँसती है कल उन्हीं की पेशानी सुब्ह-ए-नौ जगाएगी जिन की तीरा-बख़्ती पर आज रात हँसती है दिल 'मुजीब' ऐसे में डूब डूब जाता है जब निगाह-ए-दुश्मन से दोस्ती बरसती है