ये वाहिमे भी अजब बाम-ओ-दर बनाते हैं हवा की शाख़ पे ख़ुश्बू का घर बनाते हैं कफ़-ए-ख़याल पे अक्स-ए-नशात-ए-रंग तिरा नहीं बनाने का यारा मगर बनाते हैं ये मश्ग़ला है तिरे आशियाँ परस्तों का कि ज़ेर-ए-दाम पड़े बाल-ओ-पर बनाते हैं वो अपनी मर्ज़ी का मतलब निकाल लेता है अगरचे बात तो हम सोच कर बनाते हैं मैं जब भी धूप के सहरा में जा निकलता हूँ वो हाथ मुझ पे दुआ का शजर बनाते हैं मिरी मिसाल है उन सब्ज़ शाख़चों जैसी जो धूप कात के मल्बूस ज़र बनाते हैं हम उस को भूल के करते हैं शाइ'री 'ताबिश' कमाल-ए-बे-हुनरी से हुनर बनाते हैं