ये ज़िंदगी हयात-नुमा हो तो बात है ग़म ही ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ मिला हो तो बात है शो'ला-फ़िशानियाँ भी तिरे इश्क़ तक रहें इस दिल से फिर धुआँ भी उठा हो तो बात है रंग-ए-ज़माना देख के तर्क-ए-वफ़ा सही दिल से तिरा ख़याल गया हो तो बात है आसूदगान-ए-ग़म की ख़िज़ाँ क्या बहार क्या दिल में कोई भी ज़ख़्म खुला हो तो बात है अहल-ए-जुनूँ ज़माने में रुस्वा हुए तो क्या तू ने भी वो फ़साना सुना हो तो बात है शिकवा तिरे तग़ाफ़ुल-ए-पैहम का क्या करें अपना भी ए'तिबार किया हो तो बात है 'माहिर' है ख़िज़्र से भी सिवा गुमरही-पसंद तुझ सा हसीन राह-नुमा हो तो बात है