यूँ देखने में तो बस ख़ाक-ए-मुख़्तसर हूँ मैं मुझे कुरेद कभी ख़ुद में बहर-ओ-बर हूँ मैं अज़ल से ता-ब-अबद फैली हैं जड़ें मेरी कभी न आई ख़िज़ाँ जिस पे वो शजर हूँ मैं है बा'द-ए-ख़ुल्द-बदर इक अज़ाब-ए-दर-बदरी जिसे तलाश है मंज़िल की वो ख़िज़र हूँ मैं कभी निगाहों में होता है आलम-ए-बाला कभी वजूद से ही अपने बे-ख़बर हूँ मैं है ज़ात मेरी कभी तो सभी दुखों का इलाज कभी लगे है कि तिरयाक़-ए-बे-असर हूँ मैं मिरे वजूद पे है मुनहसिर तिरी तादाद अगरचे तेरी नज़र में बस इक सिफ़र हूँ मैं समझ के हर्फ़-ए-मुकर्रर जो लौह-ए-हस्ती पर ज़माना गरचे है मुनकिर मिरा मगर हूँ मैं नहीं है बज़्म-ए-ख़िरद में जो मेरी क़द्र तो क्या निगाह-ए-अहल-ए-जुनूँ में तो मो'तबर हूँ मैं मिरी ज़बान-ए-सदाक़त का जुर्म है 'ख़ावर' ज़माना मुझ को समझता है ख़ीरा-सर हूँ मैं