यूँ देखने को देखते रहते हैं ख़्वाब लोग रखते हैं रोज़-ओ-शब का भी लेकिन हिसाब लोग इक रोज़ ज़िंदगी ने किया था कोई सवाल क्या जाने कब से ढूँड रहे हैं जवाब लोग हर चेहरा-ए-सवाल से करते हो ख़ुद सवाल तुम लोग भी हो शहर में क्या ला-जवाब लोग हर आसमाँ को अपनी ज़मीं तक उतार लाए क्या क्या न कर गुज़रते हैं ख़ाना-ख़राब लोग