यूँ ही रक्खोगे इम्तिहाँ में क्या नहीं आएगी जान जाँ में क्या क्यूँ सदा का नहीं जवाब आता कोई रहता नहीं मकाँ में क्या इक ज़माना है रू-ब-रू मेरे तुम न आओगे दरमियाँ में क्या वो जो क़िस्से दिलों के अंदर हैं वो भी लाओगे दरमियाँ में क्या किस क़दर तल्ख़ियाँ हैं लहजे में ज़हर बोते हो तुम ज़बाँ में क्या दिल को शिकवा नहीं कोई तुम से हम ने रहना नहीं जहाँ में क्या वो जो इक लफ़्ज़ ए'तिबार का था अब नहीं है वो दरमियाँ में क्या मेरे ख़्वाबों के जो परिंदे थे हैं अभी तक तिरी अमाँ में क्या अब तो ये भी नहीं ख़याल आता छोड़ आए थे इस जहाँ में क्या ये बखेड़ा जो ज़िंदगी का है छोड़ दूँ उस को दरमियाँ में क्या चंद वा'दे थे चंद दा'वे थे और रखा था दास्ताँ में क्या जाने वो दिल था या दिया कोई रात जलता था शम्अ-दाँ में क्या