यूँ लग रहा है मैं भी समझदार हो गई सहरा में आँधियों की तरफ़-दार हो गई दिल की ज़मीं ने मा'रका झेला न था कभी धड़कन सहर से पहले अज़ादार हो गई आवाज़ दे के रोकना चाहा उसे मगर मैं बद-नसीब आज ही ख़ुद्दार हो गई दाग़-ए-जिगर से आँख का काजल बना दिया मैं अपनी दास्ताँ की अदाकार हो गई दार-ओ-रसन से राब्ता मेरा न था मगर क्या कीजिए कि मौत वफ़ादार हो गई