यूँ लगा देख के जैसे कोई अपना आया थी निगाहों में जो सूरत कोई वैसा आया दिन गुज़ारे तो बहुत काट दिए माह-ओ-साल अपने घर में न कोई आप के जैसा आया ऐसा माहौल कि पल भर न जहाँ रुक पाए क्या कभी आप को इस तरह भी जीना आया जो किया हम ने वो सब तुम ने भुलाया कैसे इतने एहसानों का बदला न चुकाना आया ज़िंदगी काट दी ख़ुद अपनी ही तारीफ़ों में दूसरा क्या है समझना भी न इतना आया तुर्श-रूई से मिला आप को क्या क्या अब तक आप को ये भी तो अब तक न समझना आया है ख़ुदा एक तो फिर किस की परस्तिश करते दूसरा नाम 'वसीया' को न जपना आया