हम एक ढलती हुई धूप के तआक़ुब में हैं तेज़-गाम साए साए जाते हैं चमन में शिद्दत-ए-दर्द-ए-नुमूद से ग़ुंचे तड़प रहे हैं मगर मुस्कुराए जाते हैं मैं वो ख़िज़ाँ का बरहना-बदन शजर हूँ जिसे लिबास-ए-ज़ख़्म-ए-बहाराँ पहनाए जाते हैं शफ़क़ की झील में जब भी है डूबता सूरज तो पास धूप ही जाती न साए जाते हैं ये ज़िंदगी वो तड़पती ग़ज़ल है 'कैफ़' जिसे हर एक साज़-ए-हवादिस पे गाए जाते हैं