यूँ लगता है जैसे हम दरिया के रुख़ पर रहते हैं उस की अंधी लहरों के क़ातिल धारे पर बहते हैं सदियों की तारीख़ यहाँ क़िर्तास-ए-हवा पर लिक्खी है क़रनों के अफ़्साने हम से कोह-ओ-बयाबाँ कहते हैं वक़्त से पहले बच्चों ने चेहरों पे बुढ़ापा ओढ़ लिया तितली बन कर उड़ने वाले सोच में डूबे रहते हैं जब से अंधी ज़ुल्मत ने सूरज पर शब-ख़ूँ मारा है सब फ़रज़ाने अपना अपना चेहरा ढूँडते रहते हैं 'फ़ारिग़' कैसे दौर में ये तारीख़ हमें ले आई है अपने दुख भी सहते हैं तारीख़ के दुख भी सहते हैं