यूँ लहकता है तिरे नौ-ख़ेज़ ख़्वाबों का बदन जैसे शबनम से धुले ताज़ा गुलाबों का बदन मुतरिबा ने इस तरह छेड़े कुछ अरमानों के तार कस गया अंगड़ाई लेते ही रुबाबों का बदन कोई पहनाता नहीं बे-दाग़ लफ़्ज़ों का लिबास कब से उर्यां है मोहब्बत की किताबों का बदन रात है या संग-ए-मरमर का मुक़द्दस मक़बरा जिस के अंदर दफ़्न है दो माहताबों का बदन आईने ले कर कहाँ तक हम सराबों के सफ़ीर धूप के सहराओं में ढूँडेंगे ख़्वाबों का बदन जब घुला बाद-ए-सबा में तेरे पैराहन का लम्स और भी महका तर-ओ-ताज़ा गुलाबों का बदन 'प्रेम' आख़िर सुब्ह-ए-नौ खोलेगी कब बंद-ए-क़बा झाँकता है चिलमनों से आफ़्ताबों का बदन