यूँ समाया है कि अब सर से निकलने का नहीं मैं जो चाहूँ भी तो इक डर से निकलने का नहीं मैं ने जो ख़ौफ़ पिरोया था रगों में अपनी ऐसा बैठा है कि अंदर से निकलने का नहीं बाद कोशिश के नतीजा ये निकाला मैं ने ज़िंदगी मैं तिरे चक्कर से निकलने का नहीं खींच लाते हैं हक़ीक़त में हवादिस वर्ना आदमी ख़्वाब के मेहवर से निकलने का नहीं सर पटख़ता नहीं पिंजरे में परिंदा यूँही शौक़-ए-परवाज़ कभी पर से निकलने का नहीं इक सड़क और मिरा आठवाँ दसवाँ चक्कर और मुझे इल्म है वो घर से निकलने का नहीं अपने अंदर यूँ छुपाए हैं सनम पत्थर ने बुत कोई तेशा-ए-आज़र से निकलने का नहीं ग़म-ए-दौराँ भी है यूँ जैसे मिरा यौम-ए-हिसाब मैं तो दुनिया में भी महशर से निकलने का नहीं धोंस देता है ये सूरज मुझे हर शाम 'हसन' वो जो डूबा तो समुंदर से निकलने का नहीं