यूँ संग-दिल हयात से अहद-ओ-वफ़ा किया दीवार दरमियाँ थी मगर ख़ुद को वा किया मिट्टी का रंग-ओ-नूर से रिश्ता क़दीम था हर बार ज़िंदगी ने नया तजरबा किया थे दस्तरस में यूँ तो सब असरार-ए-काएनात इस उम्र-ए-बेवफ़ा ने मगर ना-रसा किया हर अजनबी मक़ाम से तन्हा गुज़र गए अपना ही नक़्श-ए-पा था जिसे रहनुमा किया चमका दिया लहू ने दिल-ए-तीरा-जिस्म को इक सैल-ए-नूर था कि रगों में बहा किया दानिस्ता लुट गया ये समन-ज़ार देखना फूलों ने निकहतों को सिपुर्द-ए-सबा किया ये रात रौशनी की तमन्ना में बुझ गई दिल को ये किस शिकस्त ने बे-मुद्दआ किया यूँ तो जहाँ तमाम है तूफ़ान-ए-रंग-ओ-नूर किस आबशार ने हमें रंगीं-नवा किया