यूँ शब-ए-हिज्र बिताई मैं ने नींद ताक़ों में जलाई मैं ने छोड़ जाऊँगी क़सम से तुझ को और क़सम भी तिरी खाई मैं ने उस की आँखों से चुरा कर कुछ अश्क रात की पहली कमाई मैं ने उस का ग़म सर्द किया आहों से धूप में छाँव मिलाई मैं ने जाने क्यों रूह की दीवार पे आज ज़र्द सी बेल चढ़ाई मैं ने नाम तकिए पर तिरा लिखना था इस लिए सीखी कढ़ाई मैं ने बेच कर 'सादिया' ज़ेवर माँ का पूरी की अपनी पढ़ाई मैं ने