यूँ सुकूनत की तलबगार हुई जाती है ज़िंदगी साया-ए-दीवार हुई जाती है हर मुलाक़ात पे कुछ और बहकती नज़रें क्या तिरी ज़ात पुर-असरार हुई जाती है सुब्ह कहती है मिरे साथ चलो आगे बढ़ो मत कहो ज़ीस्त गिराँ-बार हुई जाती है यूँ समाई है तिरी साँस मिरी साँसों में हर-नफ़स गर्मी-ए-अफ़्कार हुई जाती है डगमगा कर ही मिरी ज़ीस्त सँभलती है ज़रा कौन कहता है कि बे कार हुई जाती है रूह तो जिस्म से रिश्ते को निभाने के लिए मौत से बरसर-ए-पैकार हुई जाती है जुस्तुजू उस की अगर कोई ख़ता है 'आदिल' ये ख़ता मुझ से लगातार हुई जाती है