यूँ तो किस चीज़ की कमी है हर शय लेकिन बिखर गई है दरिया है रुका हुआ हमारा सहरा में रेत बह रही है क्या नक़्श बनाइए कि घर में दीवार कभी नहीं कभी है ख़्वाहिश का हिसाब भी लगाऊँ लड़की तो बहुत नपी तुली है दिल तंग है पास बैठने से उठना चाहूँ तो रोकती है होती जाती है मेरी तश्कील जूँ जूँ मुझ में वो टूटती है तस्वीर-ए-ख़िज़ाँ लहू में अब के पीली पीली हरी हरी है बाहर से चटान की तरह हूँ अंदर की फ़ज़ा में थरथरी है पैरव नहीं एक भी 'ज़फ़र' का किस मज़हब-ए-सख़्त का नबी है