यूँ तो क्या क्या लोग छुपे थे दरवाज़ों के पीछे मैं ही बस उड़ता रहता था आवाज़ों के पीछे ख़ून का इक क़तरा वर्ना फिर मौत का नश्शा होगा पर ऐसी शय कब होती है परवाजों के पीछे वो तो लोग बना देते हैं पुर-असरार फ़ज़ा को अक्सर कोई राज़ नहीं होता राज़ों के पीछे मूसीक़ार के बस में कब है लय को लौ में ढाले एक अन-देखा हात भी होता है साज़ों के पीछे फिर तो अपने ख़ून में तैर के पार उतरना होगा तलवारों की फ़स्ल हो जब तीर-अंदाजों के पीछे तमग़ा पेंशन बेवा बच्चे मायूसी तन्हाई एक कहानी रह जाती है जाँ-बाज़ों के पीछे अब तो हर चौखट पर माथा टेक रहे हो 'सैफ़ी' और अगर दीवारें निकलें दरवाज़ों के पीछे