यूँ तो शीराज़ा-ए-जाँ कर के बहम उठते हैं बैठने लगता है दिल जूँही क़दम उठते हैं हम तो इस रज़्म-गह-ए-वक़्त में रहते हैं जहाँ हाथ कट जाएँ तो दाँतों से अलम उठते हैं सहल अंगार-तबीअ'त का बुरा हो जिस से नाज़ उठते हैं तिरे और न सितम उठते हैं कोई रौंदे तो उठाते हैं निगाहें अपनी वर्ना मिट्टी की तरह राह से कम उठते हैं नींद जाती ही नहीं अर्ज़-ए-हुनर से आगे दफ़्तर-ए-ग़म ही सदा कर के रक़म उठते हैं दिन की आग़ोश-ए-रज़ाअत से निकल कर 'ताबिश' रात की रात कफ़-ए-ख़ाक से हम उठते हैं