यूँ चुभ रहा है आँख में मंज़र ज़रा ज़रा तिनका हो जैसे ज़ख़्म के अंदर ज़रा ज़रा मिटते हैं बेबसी के रवादार इस तरह घिसते हैं जैसे भुरभुरे पत्थर ज़रा ज़रा जीने के वास्ते यही एहसास है बहुत हम भी हैं दूसरों के बराबर ज़रा ज़रा जी में है आज आँख की हसरत निकाल लूँ कब तक ये आसमान से टक्कर ज़रा ज़रा पाया क़दम क़दम पे दरिंदों को ख़ेमा-ज़न डाली नज़र जो शहर के अंदर ज़रा ज़रा बस्ती में बैठ जाती है टीलों के रूप में आती है रेत दर्द की उड़ कर ज़रा ज़रा 'आबिद' ये क़ुर्ब लम्हों का सदियों की दूरियाँ कब तक मगर ये लज़्ज़त-ए-महशर ज़रा ज़रा