यूँ तो एहसास-ए-ज़ियाँ पे ख़ून-ए-दिल रोता रहा ज़िंदगी का बोझ फिर भी दोस्तो ढोता रहा इंतिहा-ए-ग़म में भी मौज-ए-तबस्सुम लब पे थी दर्द की बारिश में भी ये दिल धनक होता रहा बारहा इस बात का मुझ को हुआ है तजरबा जिस के हक़ में की दुआ काँटे वही बोता रहा दिल के दरवाज़े पे कोई भी सदा उभरी नहीं प्यार-दस्तक के लिए मैं उम्र-भर रोता रहा उस का घर भी शो'लों की ज़द से न आख़िर बच सका जो लगा कर आग ख़ुद था चैन से सोता रहा ग़म नहीं 'अख़्तर' को बर्बादी का अपनी ऐ ख़ुदा हाँ मगर सब कुछ तिरे होते हुए होता रहा