यूसुफ़ी गर नहीं मुमकिन तो ज़ुलेख़ाई कर उन से पैदा कोई तक़रीब-ए-शनासाई कर पहले हर ग़म की मोहब्बत में पज़ीराई कर चाक फिर दामन-ए-तम्कीन-ओ-शकेबाई कर रू-ब-रू उन के मिरा हाल सुनाने वाले अपनी जानिब से भी कुछ हाशिया-आराई कर न तमन्ना न तिरी याद न ग़म हो न ख़ुशी कभी ऐसा भी अता आलम-ए-तन्हाई कर मेरी क़िस्मत में हैं पत्थर तिरी क़िस्मत में हैं फूल अपनी शोहरत से न अंदाज़ा-ए-रुस्वाई कर सब मिरे हाल-ए-परेशाँ का उड़ाते हैं मज़ाक़ ऐ ग़म-ए-दोस्त मिरी हौसला-अफ़ज़ाई कर