ज़बाँ न होती क़लम न होते ज़मीं न होती क़दम न होते कोई जो थोड़ा लिहाज़ करता किसी पे इतने सितम न होते हमारा चेहरा भी खिलखिलाता जो दिल में रंज-ओ-अलम न होते किसी भी रस्ते पे चल निकलते मगर यूँ सू-ए-अदम न होते ज़रा जो ख़ुद पर धियान देते हमारे उश्शाक़ भी कम न होते कहा किसी का जो मान लेते हया से गर्दन में ख़म न होते कहीं भी होते बिना हम उन के यहाँ ख़ुदा की क़सम न होते हज़ार बातों का है ख़ुलासा जो वो न होते तो हम न होते