ज़ख़्म-ए-दिल ज़ख़्म-ए-ज़बाँ सब सह गए वक़्त के मारे हुए चुप रह गए आप की दरिया-दिली भी देख ली कितने दरिया आँसूओं में बह गए दे रहे थे बे-अमल दर्स-ए-अमल हम भी सब सुन कर समझ कर रह गए बे-ज़बानी भी ज़बाँ बन कर रही कुछ न कहना था मगर कुछ कह गए हर्फ़-ए-हक़ बर्दाश्त के क़ाबिल न था कितनी चोटें थीं जो नाहक़ सह गए ग़फ़लत-ए-इमरोज़ के सैलाब में कल के सारे कारनामे बह गए 'नज्म' हम निकले जो अर्ज़-ए-ताज से ख़ुसरव-ए-बे-ताज हो कर रह गए