रस्म-ए-उल्फ़त को निभाएँ तो निभाएँ कैसे हर तरफ़ आग है दामन को बचाएँ कैसे दिल की राहों में उठाते हैं जो दुनिया वाले कोई कह दे कि वो दीवार गिराएँ कैसे दर्द में डूबे हुए नग़्मे हज़ारों हैं मगर साज़-ए-दिल टूट गया हो तो सुनाएँ कैसे बोझ होता जो ग़मों का तो उठा भी लेते ज़िंदगी बोझ बनी हो तो उठाएँ कैसे