ज़ख़्म क्यों दिल पे लगाते हो जो भरने के नहीं मिट गए नक़्श वफ़ा के तो उभरने के नहीं हम को उस औज-ए-शरफ़ तक है रसाई मुश्किल आप उस मसनद-ए-नख़वत से उतरने के नहीं ऐसा गुलशन की सियासत ने किया है पाबंद हम असीरान-ए-क़फ़स आह भी करने के नहीं बढ़ गई काकुल-ए-हस्ती की परेशानी और जाइए आप से गेसू ये सँवरने के नहीं कितने सैलाब-ए-बला झेल चुके हैं हम लोग अब किसी शोरिश-ए-अमवाज से डरने के नहीं