ज़ख़्म से ख़ौफ़ हमें मिस्ल-ए-गुहर कुछ भी नहीं ख़्वाहिश-ए-चारा-ए-नासूर-ए-जिगर कुछ भी नहीं इतनी मुद्दत से निकाला है कि मानिंद-ए-अदम कोई पूछे तो मुझे याद वो घर कुछ भी नहीं दिए इस हस्ती-ए-मौहूम ने क्या क्या धोके गो कि ज़ाहिर में ये सब कुछ है मगर कुछ भी नहीं सर्फ़ की उम्र अबस शग़्ल-ए-दुआ में हम ने कि समझते थे कोई शय है असर कुछ भी नहीं कीजे कुश्ता मुझे काम आऊँगा मिस्ल-ए-सीमाब आप का फ़ाएदा है इस में ज़रर कुछ भी नहीं सुब्ह-ए-पीरी हुई और कूच का वक़्त आ पहुँचा हैफ़ है पास मिरे ज़ाद-ए-सफ़र कुछ भी नहीं बहर-ए-रहमत पे ख़ुदा के नहीं ज़ाहिद को नज़र सामने उस के मिरा दामन-ए-तर कुछ भी नहीं क्यों मिरी क़त्ल पे बाँधा इसे खोलो साहब मैं गुनहगार हूँ और जुर्म-ए-कमर कुछ भी नहीं बद-गुमानी ने यहाँ वहम लगाए क्या क्या वाँ सताने के सिवा मद्द-ए-नज़र कुछ भी नहीं है शब-ए-वस्ल मय-ए-वस्ल पियो तुम बे-ख़ौफ़ आँख क्यों आप की है जानिब-ए-दर कुछ भी नहीं दिरहम-ए-'दाग़' भी गर्दूं ने दिए पर 'साबिर' इस में होती मिरी औक़ात बसर कुछ भी नहीं