ज़ख़्मों की और छालों की भी अंजुमन रहे तलवों में नोक-ए-ख़ार-ए-सफ़र की चुभन रहे ये क्या हुआ कि चार क़दम चल के मिल गई मंज़िल मिले तो पाँव में कुछ तो थकन रहे दुश्मन का कोई तीर न आया हमारी सम्त जब तक सरों से बाँधे हुए हम कफ़न रहे ज़िंदों के जिस्म के लिए रख दो नए लिबास मेरे बदन पे कोई पुराना कफ़न रहे निकले जो तीर जिस्म से महसूस ही न हो बंदा ख़ुदा के सामने ऐसा मगन रहे मज़हब पे हर्फ़ आए तो लाज़िम है एहतिजाज लेकिन इस एहतिजाज में शाइस्ता-पन रहे ईमाँ पे बात आई तो सोचा नहीं कभी तन से जुदा हो सर कि ये बाक़ी बदन रहे दुनिया-ए-नातराश को इस से ग़रज़ नहीं दामन पे कोई दाग़ लगे या शिकन रहे टुकड़ों में और फ़िर्क़ों में बटने लगा वतन किस को पता है कल को ये कैसा वतन रहे शोअ'रा-ओ-सामईन की भी बज़्म-ए-शेर में 'अहसन' ये आरज़ू है कोई गुल-बदन रहे