ज़माने भर से क्या अपने से बेगाना बनाती है मोहब्बत वो बुरी शय है कि दीवाना बनाती है हक़ीक़त थी पतंगे की मगर इक बे-हक़ीक़त थी यही लौ है जो परवाने को परवाना बनाती है इनायत हो जो साक़ी की तो दिल कूज़ा नहीं रहता समा जाता है ख़ुम जिस में वो पैमाना बनाती है वो छुप के रह नहीं सकते किसी गोशे में भी दिल के फ़रावानी-ए-जल्वा आइना-ख़ाना बनाती है मैं ख़ुम के ख़ुम भी पी जाऊँ तो लग़्ज़िश हो नहीं सकती मगर मस्ती तिरी आँखों की मस्ताना बनाती है निगाह-ए-फ़ित्ना-सामाँ भी निगाह-ए-मुल्तफ़ित निकली बसा कर दिल की बस्ती ख़ुद ही वीराना बनाती है दो हर्फ़-ए-ग़म के क़िस्से को इक आह-ए-ना-तवाँ खिंच कर न पूरा हश्र तक हो ऐसा अफ़्साना बनाती है निकलना पाँव का चादर से है सामान-ए-रुस्वाई हवस बढ़ जाती है हद से तो दीवाना बनाती है असास-ए-ज़िंदगी 'नव्वाब' है उम्मीद फ़र्दा की यही दिल के ख़राबे को परी-ख़ाना बनाती है