इसी सूरत हम अपना राज़-ए-दिल शायद निहाँ कर लें ज़माने भर को अपने आप से हम बद-गुमाँ कर लें फ़रेब-ए-इश्क़ का मारा हुआ गुम-कर्दा मंज़िल हूँ शरीक अपना कहें मुझ को न अहल-ए-कारवाँ कर लें तमाशा ही अगर मक़्सूद है उस हुस्न-पैकर का तो अपना दिल तो इस क़ाबिल ज़रा अहल-ए-जहाँ कर लें हरम का शैख़ को और बरहमन को दैर का दा'वा तुम्हारी किस जगह तख़सीस ऐ जान-ए-जहाँ कर लें अगर अहल-ए-हरम चाहें ख़ुदा को मेहरबाँ करना तो मय-ख़ाने में आकर बैअ'त-ए-पीर-ए-मुग़ाँ कर लें वहाँ पहुँचाऊँ ले जा कर जहाँ मंज़िल ही मंज़िल हो जो अहल-ए-कारवाँ मुझ को ही मीर-ए-कारवाँ कर लें उधर मौज-ए-तबस्सुम और इधर अंगड़ाइयाँ उन की बताओ 'आरज़ू' अब सब्र का कैसे गुमाँ कर लें