ज़मीं ख़ुश्क है आसमाँ सो रहा है ग़म-ए-ज़िंदगी है जहाँ सो रहा है न शब की सियाही न है रोज़-ए-रौशन ज़मीं है फ़सुर्दा ज़माँ सो रहा है गरजते हैं बादल तड़पती है बिजली मची धूम ऐसी अमाँ सो रहा है चमन जल्वा-गर है नवा-संज बुलबुल बड़े लुत्फ़ से मेहरबाँ सो रहा है चमन की हर इक शाख़-ए-नौ मुंतज़िर है शुआ'ओं का क्यों कारवाँ सो रहा है सियाही ये कैसी जहाँ में है फैली इलाही तू इस दम कहाँ सो रहा है हलावत न है 'तश्ना' अब गुफ़्तुगू में कहाँ तू मिरे जान-ए-जाँ सो रहा है