आँख झपकी जो समुंदर की निगहबानी में इक ज़मीं झूम के उभरी थी खुले पानी में जिस्म छन-छन के नुमूदार हुए जाते हैं कोई पर्दा है मिरी आँख की उर्यानी में धूप गुज़री तो मिरे सहन से हट कर गुज़री रात ठहरी तो किसी कुंज-ए-बयाबानी में अब्र बरसा तो कई रोज़ बराबर बरसा दश्त सैराब हुआ आलम-ए-हैरानी में