ज़मीं की प्यास को सैलाब क्यों दिखाता है तू जानता है कोई कैसे घर बनाता है कोई फ़क़ीर है बस्ती से दूर टीले पर चराग़ जैसे अंधेरे में जगमगाता है लहू के रिश्ते निभाना भी मसअला है यहाँ और एक तू है कि इस दौर में निभाता ये ये और बात मिरी आँख को रसाई नहीं कोई तो है जो मिरे ख़ून में समाता है तू अपने बाप को समझेगा बाप होने पर कि आसमान सितारे कहाँ से लाता है