ज़मीं से आसमाँ तक कोई इस्तिआ'रा नहीं किसी के हम नहीं हैं और कोई हमारा नहीं भँवर-बदन से कुछ इस तरह हम उलझ बैठे निकल के जाएँ किधर कोई भी किनारा नहीं उसी को ख़्वाब-ए-हवस में हैं देखती आँखें हमारे पास कोई और माह-पारा नहीं वो चाहता है कि हम दस्तरस में उस की रहें किसी का हो के रहें ये उसे गवारा नहीं वजूद-ए-जाँ के सिवा मिलकियत नहीं कुछ भी इसी सबब से मिरा कोई गोशवारा नहीं चलो कि करते हैं तख़्लीक़ इक नई दुनिया कोई नसीब का अपने यहाँ सितारा नहीं