ज़ात-ओ-सिफ़ात का तिरी राज़ अयाँ निहाँ भी है दिल में यक़ीं की शक्ल है आँख में तो गुमाँ भी है वक़्त की मस्लहत से कुछ मैं हूँ ख़मोश वर्ना आज ख़ामा-ब-दस्त ही नहीं मुँह में मिरे ज़बाँ भी है मेरा तजस्सुस-ए-हवास मुझ को बँधा रहा है आस जिस्म के इस जहाँ से दूर रूह का इक जहाँ भी है जिस में ग़म-ए-जहाँ फ़क़त सूरत-ए-यक-हबाब है दिल में वो तेरा जज़्ब-ए-शौक़ क़ुल्ज़ुम-ए-बे-कराँ भी है वुसअ'त-ए-अर्श-ओ-फ़र्श में अज़्म-ओ-अमल से आदमी सिमटे तो एक ज़र्रा है फैले तो इक जहाँ भी है 'राज़' ब-ग़ौर देख तू सर से बशर को पाँव तक संग भी है शरर भी है आग भी है धुआँ भी है