ज़िक्र मेरा लब-ए-हसीन पे था मैं ड्रामे के पहले सीन पे था सारा क़िस्सा अलिफ़ से ये तक कल चेहरा चेहरा मिरी जबीन पे था रात तारों की अंजुमन में कटी आँख खुलते ही मैं ज़मीन पे था मेरी उँगली में चीख़ उठी सिगरेट काफ़ का बोझ गरचे शीन पे था दिन की तारीकियाँ समेटे हुए रात सूरज नई मशीन पे था तुम भी अंधे कुएँ में तन्हा थे मैं भी तन्हा फ़सील-ए-चीन पे था मैं ने सोचा कि दूँ सदा दर पर घर मुसल्लत मगर मकीन पे था वो तो बुत-ख़ाना मिल गया 'अनवर' वर्ना मैं कल भी राह-ए-दीन पे था