ज़िंदगी और भी दुश्वार हुई जाती है अब तो हर साँस इक आज़ार हुई जाती है बिन कहे राज़-ए-मोहब्बत है ज़माने पे अयाँ ख़ामुशी भी मिरी गुफ़्तार हुई जाती है साफ़ इंकार किया वस्ल से तू ने लेकिन मुस्कुराहट तिरी इक़रार हुई जाती है कभी डरता हूँ गिराँ गुज़रे न उन को मिरी बात और कभी जुरअत-ए-इज़हार हुई जाती है उन के आने की ख़बर सुन के न जाने उस दम तेज़ कुछ क़ल्ब की रफ़्तार हुई जाती है ज़ब्त की हद से गुज़रते ही मोहब्बत अपनी ख़ूब रुस्वा सर-ए-बाज़ार हुई जाती है उन की मासूम नज़र थी कभी 'फ़य्याज़' मगर अब तो आलम से ख़बर-दार हुई जाती है