ज़िंदगी हम ने तिरी झूटी नुमाइश के लिए कितने संगीन हक़ाएक़ के गले घोंट दिए हम ने कुछ शोख़ उजालों की हवा में आकर अपनी संजीदा-निगाही के बुझा डाले दिए मेरे अरमानों की शबनम तिरे रुख़्सार की धूप और क्या चाहिए शादाबी-ए-गुलशन के लिए कुछ हमीं ख़्वाब के मारे थे न चौंके वर्ना तेरी आमद के सवेरों ने तो पैग़ाम दिए वक़्त-ए-बे-रह्म का अंदाज़-ए-करम तो देखो जिन को आईने दिए दर्द के चेहरे न दिए तेरे दामन में तो है सुब्ह-ए-दरख़्शाँ की बहार ऐ शब-ए-तार मगर ज़हर तिरा कौन पिए ज़िंदगी रक़्स पर आमादा हुई है जब भी वक़्त ने हल्क़ा-ए-ज़ंजीर के बल तोड़ दिए जाने वाले तो पलट कर नहीं आते 'नाज़िम' फिर भी बैठे हैं निगाहों को सू-ए-राह किए